जल संरक्षण हमारी जीवनचर्या हो : डॉ. जुगनू

उदयपुर। जल संरक्षण हमारी जीवनशैली और जीवनचर्या का अंग होना चाहिए और जलस्रोत के प्रति सम्मान बढ़े, यह समय की आवश्यकता है। यह बात भारतविद्याविद डॉ. श्रीकृष्ण ” जुगनू ” ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित ” विश्व संस्कृति में जल संरक्षण : एक विमर्श ” विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में ऑन लाइन व्याख्यान में कही। इतिहास विभाग और सामाजिक विज्ञान संकाय के तत्त्वाधान में संपन्न इस आयोजन में उन्होंने मेघशास्त्र, जलस्रोत शास्त्र और भूमिगत जल विषयक शास्त्रों और वाचिक परंपरा पर प्रकाश डाला। यह भी कहा कि राजस्थान को जल की बचत का गुण कुदरत से मिला है। ” पानी बचाओ ” ऐसा यहां कहना नहीं पड़ता बल्कि पानी है ही कहां, जिसे व्यर्थ बहाया जाए! गीतों में गाया गया है : घी ढुलै तो म्हारो कुछ नह बिगड़े, पाणी ढुलै तो म्हारो जीवड़ो जले। मरुभूमि के जहाज कहे गए ऊंट जैसे पशु तक कई कई दिनों तक पानी नहीं पीते तो भी मरते नहीं। कहीं और तीर्थों को तैराने वाला कहा हो लेकिन यहां ऊंट को मारग पार लगाने वाला कहा गया है। यह ऐसी भूमि है, जहां पानी के स्रोत : सर, शिरा, सरोवर, बावड़ी, ताल के आधार पर सर्वाधिक बस्तियों की बसावट हुई है। जल वर्षण और संरक्षण ही नहीं, जल स्रोतों के निर्माण, विकास और जीर्णोद्धार पर सबसे अधिक शास्त्र यहीं लिखे गए। जलस्रोतों के सबसे अधिक रूप यहां रचे गए, इतने मौलिक कि एक दूसरे से कोई निर्माण मेल नहीं खाता!
उन्होंने कहा, यहां मेघ देखकर वर्षा योग बताने वाले गरबी आज भी हैं, आज भी भूमिगत जल शिरा बताने वाले हरवा और भूतल पर जल योग बताने वाले आगला मिल जाते हैं। ज्ञान की यह परम्परा जितनी लिखित रूप में है, उतनी ही मौखिक और पुश्तैनी रूप में भी अभ्यास में रही है। सारस्वत मुनि के जलार्गल, पराशर एवं काश्यप की सूक्तियों और अपराजित के निर्देश से लेकर ओझा जी कृत कादम्बिनी तक का प्रणयन हमारे ज्ञान की प्रणाली और विस्तार लिए है। बीएचयू की आयोजन सचिव डॉ. सीमा मिश्रा और संयोजक अशोक कुमार सोनकर ने आभार जताया।

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