उदयपुर। शारदीय नवरात्रि के पावन पर्व पर मेवाड़ में ‘अश्व पूजन’ की परम्परा का निर्वहन करते हुए डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ के सुपुत्र भंवर हरितराज सिंह मेवाड़ ने अश्वों का विधि-विधान के साथ पूजन सिटी पैलेस में किया। अश्वों को पारम्परिक रूप से शृंगारित कर सिटी पेलेस स्थित ‘सातानवारी पायगा’ मोती चौक पूजन स्थल पर लाया गया। जहां पुरोहितजी एवं पण्डितों के मंत्रोच्चारण पर भंवर हरितराज सिंह मेवाड़ ने ‘अश्व पूजन’ का प्राचीन परंपरा का निर्वहन किया। पूजन में सुसज्जित राजमुकुट, नागराज व अश्वराज नाम के अश्वों पर अक्षत, कुंकुम, पुष्पादि चढ़ाकर आरती की गई तथा अश्वों को भेंट में आहार, वस्त्रादि के साथ ज्वारें धारण करवाई गई। सदियों से मेवाड़ में आसोजी नवरात्र का विशेष महत्व रहा है। प्रतिपदा के शुभ मुहूर्त में मेवाड़ वंश की कुलदेवी राजराजेश्वरी श्री बाणमाताजी को लवाजमें के साथ महलों में पधारते है और नवरात्र की स्थापना में माताजी एवं खड्ग जी की स्थापना की जाती है। अष्टमी के दिन हवन इत्यादी के पश्चात् मेवाड़ वंश की कुलदेवी पुनः लवाजमें के साथ भट्टजी के निवास स्थान पर पधारते है।
-अश्व पूजन की परंपरा का यह है ऐतिहासिक महत्व
सूर्यवंश की प्राचीन परम्परानुसार मेवाड़ में अश्व-पूजन की परम्परा सदियों से चली आ रही है। शारदीय नवरात्रि की संध्याकाल में नवमी होने पर उदयपुर के राजमहल में अश्वों के पूजन की परम्परा रही है। इस उत्सव पर अश्वों को पारम्परिक तौर-तरीकों से नखशिख आभूषण, कंठी, सुनहरे छोगें, मुखभूषण, लगाम, चवर आदि से शृंगारित कर पूजन में लाया जाता है। सातानवारी पायगा : सातानवारी पायगा का अर्थ है सात और नौ खानों वाला घोड़े का अस्तबल। सबसे प्राचीन अस्तबलों में से एक इस अस्तबल को महाराणा करण सिंह जी (शासनकाल 1620-1628 ईस्वी.) ने बनवाया था। 17वीं सदी के इस अस्तबल में मारवाड़ी नस्ल के अभी भी पाँच घोड़े दर्शकों के लिए रखे जाते हैं। बहुत पहले यहां 16 अस्तबल थे। जिसमें 17वीं सदी का उत्तर की ओर का सात खानों वाला अस्तबल तो पश्चिमी ओर का अस्तबल, पहली मंजिल और मेहराब 20वीं सदी में हुए बदलाव और निर्माण के हैं। जिनमें से कुछ को महल के प्रशासनिक कार्यालयों में बदले गये थे।