कर्ण ढोल यानी शब्द भेद की प्रस्तुति ने किया चकित

गोवा के घूमट और जम्मू के जगरना ने रिझाया
ओडिशा के संभलपुरी नृत्य ने जीवंत की जनजाति संस्कृति
उदयपुर (डॉ. तुक्तक भानावत)।
जब एक कलाकार आंखों पर पट्‌टी बांध सैकड़ों दर्शकों की भीड़ में से एक के पास रखे नारियल को परंपरागत वाद्ययंत्रों के धुन पर चलते हुए ढूंढ़ लाया तो दर्शक न सिर्फ चकित रह गए, बल्कि तालियों की गड़गड़ाहट से इस हुनर की जमकर तारीफ भी की। यह आश्चर्यजनक प्रस्तुति महाराष्ट्र की लोक संस्कृति की एक पहचान बनी हुई है, जिसका जादू यहां शिल्पग्राम उत्सव में छा गया है। उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर की ओर से आयोजित किए जा रहे दस दिवसीय शिल्पग्राम उत्सव के चौथे दिन बुधवार की शाम को मुक्ताकाशी मंच पर मुख्य कार्यक्रम में पेश की गई। इसके साथ ही अन्य प्रदेशों की प्रस्तुतियों ने भी ‘लोक के रंग-लोक के संग’ में लोक रंजन की बयार बहा दी। इनमें गुजरात के प्रसिद्ध माता रानी की आराधना में किए जाने वाले गरबा व जम्मू के पारंपरिक डोगरी लोक नृत्य जगरना ने दर्शकों को खूब झुमाया। वहीं, राजस्थान के नगाड़ा वादन, सहरिया आदिवासी संस्कृति को उकेरता सहरिया स्वांग व ठेठ ग्रामीण संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती सफेद आंगी गेर ने भी सभी का मन माेह लिया। गोवा के नदी पार कराने को नाविक से गुजारिश करती महिलाओं का देखनी, मणिपुर के सारस्वत ब्राह्मणों का परंपरागत लाई हारोबा और त्रिपुरा के सिर पर बोतल रख बेमिसाल बैलेंसिंग के लोक नृत्य होजागिरी और ओडिशा की जनजातीय संस्कृति को उकेरते संभलपुरी नृत्य की प्रस्तुतियों ने दर्शकों की खबू वाहवाही लूटी। वहीं, महाराष्ट्र की फोक प्रस्तुति मल्लखंभ के कलाकारों के करतब देख दर्शक ख्ूब रोमांचित हुए, तो हरियाणा की प्रसिद्ध घूमर और राजस्थान के लोक देवता गोगाजी को समर्पित डेरू नृत्य पर को भी दर्शकों ने बहुत सराहा। कार्यक्रम का संचालन मोहिता दीक्षित और यश दीक्षित ने किया।

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लेक सिटी के लोगों का कला प्रेम बना मिसाल : निदेशक
उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक फुरकान खान ने कहा कि शिल्पग्राम उत्सव में मेवाड़, खासकर उदयपुर शहर के बाशिंदों का कला प्रेम मिसाल बना हुआ है। यही वजह है कि साल-दर-साल यह उत्सव नई ऊंचाइयां छू रहा है। केंद्र ने भी यहां के कला प्रेमियों की रुचि के मद्देनजर काफी नवाचार किए हैं। उन्होंने बताया कि शिल्पग्राम प्रांगण में चार पद्म पुरस्कार प्राप्त सहित 15 नामचीन चित्रकारों के कला शिविर तथा मुक्ता काशी मंच के पास चल रही कार्यशालाओं के प्रति हर उम्र के लोग उत्साह दिखा रहे हैं।
‘हिवड़ा री हूक’ में दिखा हर आयु वर्ग का उत्साह :
शिल्पग्राम उत्सव के दौरान बंजारा मंच पर ‘हिवड़ा री हूक’ के चौथे दिन बुधवार को भी युवाओं में भारी उत्साह देखा गया। इस कार्यक्रम की खासियत यह है कि जो लोग प्रतिभा तो रखते हैं, मगर प्रदर्शन करने को मंच नहीं मिलता, उनको इसमें मंच प्रदान किया जाता है। इस कार्यक्रम में गीत-संगीत व अन्य प्रस्तुतियों के बीच संचालक सौरभ भट्‌ट की प्रश्नोत्तरी ने इसे और भी रोचक बना दिया है। क्विज में सही उत्तर देने वालों को हाथों-हाथ उपहार भी दिए जा रहे हैं।


थडों पर लोक संस्कृति साकार :
शिल्पग्राम में विभिन्न थड़ों पर सुबह 11 बजे से शाम 6 बजे तक अलग-अलग प्रस्तुतियां मेलार्थियों का भरपूर मनोरंजन कर रही हैं। इनमें बुधवार को मुख्य द्वारा के पास गवरी व चकरी, आंगन के पास करतब दिखाते बाजीगर, देवरा में घूमट व पोवाड़ा, बन्नी पर मांगणियार गायन, सम पर मसक वादन, दर्पण फूड कोर्ट के पास बीन जोगी व चकरी, भूजोड़ी पर बीन-जोगी व कच्ची घोड़ी, दर्पण द्वार पर सुंदरी और बड़ा बाजार में डेरू की प्रस्तुतियांे ने मेलार्थियों का मनोरंजन किया। इनके अलावा गोवा ग्रामीण पर कठपुतली देख दर्शक अभिभूत हुए। वहीं, शिल्पग्राम्र प्रांगण में विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए बहरूपिया मेलार्थियों का मनाेरंजन कर रहा है, तो लोग उसके साथ सेल्फी भी ले रहे हैं। वहीं, प्रांगण में लगे पत्थर के स्कल्पचर्स जहां लाेगों को लुभा रहे हैं, वहीं ये सेल्फी पॉइंट्स भी बन गए हैं।

भगवान जगन्नाथ को समर्पित ओडिशा का गोटीपुआ नृत्य :


भगवान जगन्नाथ को समर्पित ओडिशा का गोटीपुआ डांस अपनी भक्ति में सराबोर धमक और चमक को लेकर कला प्रेमियों के दिलाें पर सदियाें से छाया हुआ है। इसके नर्तकों को खासतौर से भगवान जगन्नाथ की सेवा के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। माना जाता है कि पुरी में विराजे भगवान जगन्नाथ की सेवा का अवसर विरलों को ही मिलता है। ऐसे ही सौभाग्यशालियों में गोटीपुआ के नर्तकों का शुमार होता है। बता दें, शिल्पग्राम उत्सव में गुरुवार को मुक्ताकाशी मंच पर इस लोक नृत्य की धमकदार प्रस्तुति दी जाएगी।
डांस ग्रुप के लीडर बसंत प्रधान बताते हैं कि यह डांस ओडिशी क्लासिकल डांस पर बेस्ड है। भगवान जगन्नाथ के मनोरंजन के लिए सदियों पूर्व देवदासियां यह नृत्य करती थीं, उनके बाद अन्य स्त्रियां भी इस सेवा में लगीं। कालान्तर में 1509 ईस्वी से भगवान की इस सेवा में लड़के लगाए गए। तब यह भी निर्णय लिया गया था कि लड़कों को भगवान के वे सभी कार्य करने होंगे, जो पूर्व में स्त्रियां करती थीं। इसमें इस नृत्य के साथ ही मंदिर की सफाई का काम भी शामिल था। ऐसे में लड़कों को स्त्री के रूप में ही मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी गई। तभी से युवक स्त्री भेष में भगवान जगन्नाथ की सेवा करते हैं।
प्रधान बताते हैं कि कालान्तर में गोटीपुआ डांस में एक्रोबेट भी शामिल हुआ, फिर भी इन लोक नर्तकों ने निरंतर अभ्यास और कुशल प्रशिक्षण के कारण अपनी अदाकारी में लावण्यता बरकरार रखी। यद्यपि आज नृत्य के दौरान इनके कई करतब देख दर्शकों की सांसें थम जाती है। वे बताते हैं कि ‘गोटी’ का मतलब होता है ‘एक’ तथा ‘पुआ’ का अर्थ है लड़का, यानी ‘गोटीपुआ’ का मतलब हुआ एक लड़काइस डांस को करने वाले हर नर्तक को ’गोटीपुआ’ कहा जाता है। दरअसल, गोटीपुआ के लिए किसी भी मंदिर में प्रवेश निषिद्ध नहीं होता।
प्रधान बताते हैं कि गोटीपुआ नर्तक साड़ी, ब्लाउज, उत्तरी (कंधे से कमर तक का बेल्ट), पंची (कमर पट्टा), कमर के नीचे कूचो और उसके नीचे धोती जैसा पायजामा पहनते हैं। इनके वस्त्र दुल्हन के वेश की तरह चमचमाते हैं। साथ ही, गहनों में ये अपनी बाहों में बाहुटी, कलाई में बाजू ( विशेष तरह का कंगन), गले में माली (नाभि तक लंबा हार) और पैरों में घूंघरू पहनते हैं. इनके पैर के पंजों में आलता लगा होता है, यानी पूर्ण स्त्री रूप।

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