“श्रीरामचरितमानस : राजस्थानी काव्य अनुवाद” व “रागरसरंग कुंडलिया” पुस्तकों का लोकार्पण

उदयपुर। कवि, लेखक, संगीतज्ञ एवं राजस्थानी भाषा के अनुवादक पुष्कर ‘गुप्तेश्वर’ रचित “श्रीरामचरित मानस : राजस्थानी काव्य अनुवाद” व “रागरसरंग कुंडलिया” (शास्त्रीय संगीत के रागों के काव्यसूत्र की अनुपम पुस्तक) का लोकार्पण श्रीनादब्रह्म संस्थान एवं सहज प्रकाशन द्वारा सूचना केंद्र सभागार में साहित्य तथा संगीत के सुधिजनों की उपस्थिति में किया गया।
श्रीनादब्रह्म संस्थान के महासचिव अमित राव ने बताया कि लोकार्पण समारोह वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. देव कोठारी (राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के पूर्व अध्यक्ष) की अध्यक्षता व संगीतकार डॉ. प्रेम भंडारी (मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय के पूर्व संगीत विभागाध्यक्ष) के मुख्य आतिथ्य में हुआ। विशिष्ट अतिथि विजयेंद्रसिंह सारंगदेवोत लक्ष्मणपुरा (पूर्व चेयरमैन सेंट्रल बैंक उदयपुर-राजसमंद) और वरिष्ठ साहित्यकार पुरुषोत्तम ‘पल्लव’ डॉ. जयप्रकाश पंड्या ‘ज्योतिपुंज’ एवं डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’ थे।
आरंभ में अतिथियों द्वारा मां सरस्वती व रामभक्त हनुमानजी की छवि पर माल्यार्पण व दीप प्रज्ज्वलन किया गया। संचालक प्रमिला शरद व्यास ने श्रीनादब्रह्म संस्थान के कार्यों और रचनाकार पुष्कर गुप्तेश्वर के कृतित्व पर प्रकाश डाला।
डॉ. देव कोठारी ने लोकार्पित रामचरितमानस : राजस्थानी काव्य अनुवाद पुस्तक को राजस्थानी साहित्य जगत की महताऊ और जगचाही पोथी और राग रस रंग कुंडलिया पुस्तक को संगीत के क्षेत्र में अत्यंत उपयोगी कहा। डॉ प्रेम भंडारी ने कहा कि पुष्करजी गुप्तेश्वर राग रस रंग कुंडलिया पुस्तक इसलिए लिख पाए कि संगीत व साहित्य दोनों ही पर उनकी समान व उत्कृष्ट पकड़ है। यह पुस्तक शास्त्रीय संगीत के विद्यार्थियों एवं शोधकर्ताओं के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी।
पुरुषोत्तम पल्लव ने कहा कि संत ठा. गुमानसिंहजी व उनके सुशिष्य महाराज चतुरसिंहजी बावजी के योग, अध्यात्म और लोक भक्ति साहित्य की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए पुष्कर गुप्तेश्वर ने संत गोस्वामी तुलसीदासजी के अवधी भाषा में विरचित श्रीरामचरितमानस का राजस्थानी भाषा में उत्तम अनुवाद किया। इसमें आपके गुरुजी संत महात्मा ब्रजबिहारीजी बन, संतमना भक्तमती मां लक्ष्मणपुरा व इष्ट गुप्तेश्वर महादेवजी की अनन्य कृपा है। इसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे स्वयं गुप्तेश्वर महादेवजी ने इनसे लिखवाया।
डॉ. ज्योतिपुंज ने कहा कि दोनों पुस्तकें क्रमशः राजस्थानी लोक व भक्ति साहित्य तथा संगीत संसार के लिए अद्भुत होने के साथ-साथ बहुत ही लोकप्रिय साबित होंगी। डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू ने कहा कि यह मात्र अनुवाद नहीं अपितु शास्त्र की पुनर्प्रतिष्ठा है। मेवाड़ में रामचरित के लेखन, चित्रण, मंचन और मूर्तियांकन की लंबी परम्परा रही है। यहां जन सामान्य से लेकर शासकों तक ने रामचरित के आदर्श प्रस्तुत किए हैं। पिछली सदी में रसिक बिहारी, हेम बिहारी और बावजी चतुरसिंह के रचित राम काव्य के बाद इस सदी में श्री गुप्तेश्वर ने रामचरित के सृजन की सूची को विस्तार दिया है उनकी यह रचना केवल अनुवाद नहीं बल्कि गोस्वामी तुलसीदास के सूर्य कुल शासित मेवाड़ के साथ आत्मिक संबंधों को प्रगाढ़ता देता है। उनका मानस मेवाड़ और मेवाड़ी भाषा, भूषा, भाव और अनुभाव का सुंदर निकष है। यह कृति उज्ज्वल यश की कीर्ति है और अनेक बधाइयों का केंद्र है। चतुरसिंहजी के समश्लोकी स्त्रोत्र की तरह यह समश्लोकी रामायण मंदिर-मंदिर और घर-घर पारायण में आनी चाहिए।
संतमना मां लक्ष्मणपुरा के सुपुत्र ठा. विजयेंद्रसिंह सारंगदेवोत ने भी अपने भक्ति-भाव प्रकट किये। डॉ. तरुणकुमार दाधीच ने बताया कि इस ग्रंथ का अनुवाद 849 दिनों में पूरा हुआ।
समारोह में लोकार्पित पुस्तकों के रचनाकार कवि एवं अनवादकर्ता पुष्कर गुप्तेश्वर ने श्रीरामचरितमानस राजस्थानी काव्य अनुवाद पुस्तक के सुंदरकांड के दोहा संख्या का समश्लोकी दोहा “पूंछ बुझा विश्राम कर, छोटो रूप बणान। जनकसुता आगे उभा, हाथ जोड़ हनुमान।।” और राग रस रंग कुंडलिया पुस्तक से “सामप स्वर की श्रुतियां, चार चार अरु चार…” सुनाया।
श्रीनादब्रह्म संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष पुष्कर ‘गुप्तेश्वर’ व श्रीमती मंजू द्वारा ‘अहेतुकी योगदान’ के लिए रामचरितमानस मर्मज्ञ केडी शर्मा व डॉ कमल मेहरा का बहुमान किया गया। साथ ही युगधारा संस्था की ओर से संस्थापक डॉ. जयप्रकाश पंड्या ज्योतिपुंज, अध्यक्ष डॉ. किरण बाला किरण, अशोक जैन मंथन, श्रेणीदान चारण, श्याम मठपाल, पाथेय संस्थान से डाॅ. मधु अग्रवाल के साथ ही डॉ. चंद्रकांता, डॉ. रेणु सिरोया, मनोहर लड्ढा, आशा पांडे ओझा ने पुष्कर ‘गुप्तेश्वर’ का सम्मान किया गया। समारोह में निर्भयसिंह चूंडावत, हरीश नरसावत, पंडित अजय शास्त्री, मनोज दाधीच, डॉ शंकरलाल शर्मा सहित कई सृजनधर्मी व सुधि श्रोतागण उपस्थित थे। संचालन प्रमिला ‘शरद’ व्यास एवं कपिल पालीवाल ने किया।

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