हिंदी साहित्य-सिनेमा-समाज तथा अन्य माध्यम पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी शुरू

उदयपुर। भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद एवं मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के संयुक्त तत्वावधान में ‘हिन्दी साहित्य-सिनेमा-समाज तथा अन्य माध्यम’ पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ शुक्रवार को स्वामी विवेकानंद सभागार में दीप प्रज्वनल के साथ हुआ।
आयोजन सचिव डॉ. नीता त्रिवेदी ने स्वागत उद्बोधन देते हुए सभी अतिथियों का संक्षिप्त परिचय दिया। डॉ. त्रिवेदी ने कहा कि यह उदयपुर के लिए बहुत ही गौरवशाली क्षण है कि राष्ट्रीय संगोष्ठी केमाध्यम से साहित्य, सिनेमा और समाज का अनूठा संगम हुआ है। हम उस पीढ़ी के हैं जो टीवी पर चित्रहार, रामायण, चन्द्रकांता जैसे सीरियल और टॉकिज में फिल्म देखते हुए बड़े हुए हैं। उन्होंने सिनेमा के उस दौर को याद करते हुए कहा कि उस समय सिनेमा मनोरंजन का साधन तो था ही साथ ही हमें भावनात्मक और रहस्य की दुनिया से भी जोड़े रखता था लेकिन इस बदलते दौर में आज सिनेमा हर एक की जेब में मौजूद है। संगोष्ठी मेें सिनेमा में साहित्य की भूमिका, सिनेमा का समाज पर बढ़ते प्रभाव, संवाद लेखन, पटकथा, गीत, संगीत पर विद्वानों द्वारा हो रही महत्वपूर्ण चर्चा के हम साक्षी बन रहे हैं। यह चर्चा वास्तव में समाज, शोधार्थी एवं विद्यार्थियों के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालेगी और भविष्य में आने वाली चुनौतियों से निपटने में उन्हें मदद मिलेगी।


मुख्य अतिथि टेलीविजन, रंगमंच और सिनेमा के अभिनेता अखिलेन्द्र मिश्र ने अपने उद्बोधन की शुरूआत शिवताण्डव स्त्रोत से करते हुए कहा कि भगवान के डमरू से 14 सूत्र निकले। उन 14 सूत्रों से ही सारी विद्याएं, सारी विधाएं, सारी भाषाएं निकली हैं। संस्कृत में भी उन सूत्रों में से निकली हुई एक भाषा है। उस संस्कृत भाषा की कई बेटियां हैं और हिन्दी भी संस्कृत की ही बेटी है। हिन्दी अपनेआप में योग है। हिन्दी अनुलोम-विलोम है। हिन्दी शब्दों में ही कपाल भांति है। हिन्दी भाषा में ही प्राणायाम छिपा है। सृष्टि प्रदत्त भाषा है संस्कृत और हिन्दी। मानवीय  शरीर की क्रियाओं के अनुसार ही संस्कृत और हिन्दी भाषा बनी है। इसमें आहत और अन आहत भी है जो स्वत: ही उपस्थित होते हैं। ओम के उच्चारण में कहीं भी कोई घर्षण नहीं होता है। नाद से ही सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। नाद हमारे भीतर और कण-कण में समाहित है।
उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य संगोष्ठी का होना ही अपनेआप में अद्भुद है। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि युवा पीढ़ी हमसे पूछती है कि हम हिन्दी क्यूं बोलें, इसका हमारे पास कोई जवाब नहीं होता है। युवा कहते हैं कि अंगेेजी सरल भाषा है। सारी दुनिया में अंगे्रजी भाषा बोली जा रही है। हमारा कोई भी काम हिन्दी के बिना अटक नहीं रहा है। सन्तोषप्रद बात यह है कि इसके बावजूद हमारे देश में हिन्दी बोलने वालों का प्रतिशत ज्यादा है। दुर्भाग्य से अंग्रेजी आज स्टेटस सिम्बल बनती जा रही है। हिन्दी बोलने वालों को आज निम्न स्तर का माना जा रहा है।


मुख्य वक्ता गौरववल्लभ पंथ ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि इससे बड़ी बात और क्या होगी कि उन्होंने सीए की परीक्षा हिन्दी में देकर अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। मेरी इस उपलब्धि पर कई लोगों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि वे जहां भी जाते हैं ज्यादातर हिन्दी ही बोलते हैं। उन्होंने अपने जीवन में अंग्रेजी के पहले शब्द का उच्चारण तब किया जब उनका नौकरी के लिए रिजर्व बैंक में चयन हुआ। वे अंग्रेजी भाषा के विरोधी नहीं है। उन्होंने दावा किया कि वे जब अंग्रेजी में बोलते हैं तो 99 प्रतिशत लोगों को समझ में ही नहीं आती है। जब हम हवाई जहाज में सफर करते हैं तो वहां पर चाय-पानी के लिए अंग्रेजी में बोलते हैं लेकिन जब ट्रेन में सफर करते हैं तो हिन्दी में ही बोलते हैं। हमारे समाज में हिन्दी भाषा को लेकर एक मानसिकता बन गई है कि जो भी हिन्दी में बात करता है उसे दोयम दर्जे का माना जाता है जबकि अंग्रेजी भाषा आज हर किसी का स्टेटस सिम्बल बन रही है। आज भी समाज में हिन्दी भाषा और उसे बोलने वालों को वो स्थान नहीं मिल पाया है जो उच्च स्थान उन्हें मिलना चाहिये। आज के समाज में सम्मान उसी को मिलता है जो असभ्य हिन्दी बोलते हैं, जबकि सौम्य हिन्दी बोलने वाले को सम्मान नहीं मिलता है। सौम्य हिन्दी अपनी पहचान खोती जा रही है जो कि उचित नहीं है।
सुखाडिय़ा विवि की कुलपति प्रो. सुनीता मिश्रा ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि ऐसी संगोष्ठी समय की मांग है। वे स्वयं उड़ीसा की रहने वाली हैं। उन्होंने भी हिन्दी भाषा को सीखा। धीरे-धीरे अभ्यास हो गया और आज वे हिन्दी बोल लेती हैं। जब वे लखनऊ आई तब उन्हें हिन्दी भाषा का अच्छे से ज्ञान हुआ। वे पांच भाषाएं जानती हैं जिनमें उडिय़ा, हिन्दी, अंगे्रजी, बंगाली और फ्रेंच भाषा शामिल है। इन भाषाओं में वे लिखना और पढऩा अच्छे से कर सकती हैं। प्रो. मिश्रा ने कहा कि अगर हम भाषाओं को निरन्तर बोलने का अभ्यास करेंगे तो एक दिन हम इसमें पारंगत हो जाएंगे। दो दिन की यह संगोष्ठी हमारे समाज, शोधार्थी और विद्यार्थियों के लिए निश्चित ही लाभदायक होगी। उन्होंने अपनी ओर से शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए समारोह में उपस्थित टेलीविजन, रंगमंच ओर सिनेमा के अभिनेता अखिलेन्द्र मिश्र को संगोष्ठी में आने पर धन्यवाद ज्ञापित किया और उनके मशहूर टीवी धाराहिक चन्द्रकान्ता में उनके किरदार क्रूरसिंह को याद करते हुए उनके डॉयलोग यक्कू को याद कर खूब तारीफ की।


मुख्य वक्ता बुंदेलखंड विवि झांसी के प्रो. पुनीत बिसारिया ने कहा कि साहित्य के बिना समाज नहीं है और समाज के बिना सिनेमा नहीं है। सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। उन्होंने सिनेमा का शाब्दिक अर्थ बताते हुए कहा कि स से साहित्य, न से नृत्य और म से मनोरंजन होता है लेकिन आज सिनेमा के स में सनम कब समायोजित हो गया पता ही नहीं चला। यह कटु सत्य है कि आज सिनेमा की साहित्य से दूरियां बढ़ रही है। जिस लेखक और साहित्यकार को सिनेमा में जो सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिये वह नहीं मिल पा रहा है। इससे भी आगे बोलें तो कई ऐसे किस्से-कहानियां हकीकत में चलन में है कि सिनेमा ने साहित्यकारों और लेखकों को सम्मान के बजाए अपमान ज्यादा किया है। कई बार तो सिनेमा में उन लेखकों के नाम पर नहीं दिखाये जाते। आज समय की मांग है कि हमें सिनेमा और साहित्य के बीच बढ़ी दूरियों को पाटना होगा। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि कई बार सिनेमा की मजबूरियां होती है कि उन्हें साहित्यकारों और लेखकों की लिखी कहानियों में बदलाव करना पड़ता है लेकिन बदलाव का हक लेखकों को नहीं है।
विशिष्ट अतिथि स्नातकोत्तर अधिष्ठाता नीरज शर्मा ने कहा कि आज सिनेमा को स्वरूप है वह अनायास ही नहीं प्रकट हुआ है। हजारों सालों से हमारे देश में रंगमंच की विधा मौजूद थीं। अगर हिन्दी भाषा का एक शब्द भी आपके भीतर समा जाए तो आपको उच्च सम्मान मिल सकता है।
समारोह में अतिथियों द्वारा डॉ. आशीष सिसोदिया द्वारा लिखत पुस्तक ‘मेवाड़ी लोककला एवं लोकगीत’ का विमोचन किया गया। समारोह के अन्त में नवीन नन्दवाना ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए सभी का आभार जताया। इस दौरान अतिथियों को स्मृति चिन्ह प्रदान किये गये।
इसके बाद के चर्चा सत्र में डॉ. मुन्नाकुमार पाण्डे के साहित्य एवं सिनेमा से संबंधित सवालों के जवाब अखिलेन्द्र मिश्र ने दिए। अखिलेन्द्र मिश्र ने बताया कि नाटक सिनेमा की जन्मभूमि है और साहित्य एक नाटक। साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यकार का कर्म साहित्य की रचना है तो नाटककार का कर्म नाटक के अभिनय से समाज को साहित्य के मर्म से जोडऩा है। भविष्य में सिनेमा कैसा हो पर अखिलेन्द्र मिश्र ने अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने इस विषय पर चर्चा करते हुए बताया कि डॉ. लुट्से लुथार ने भारतीय सिनेमा कैसा हो पर शोध कार्य किया है। पूरी सृष्टि एक मंच है और हम सभी यहां पर नाटककार और परमपिता परमात्मा एक डायरेक्ट है जिस तरह डायरेक्टर एक अभिनेता से नाटक करवाता है उसी प्रकार परमपिता परमात्मा हम सभी से यहां पर नाटक करवा रहा है।
संगोष्ठी का समापन आज :
आयोजन सचिव डॉ. नीता त्रिवेदी ने बताया कि शनिवार को समापन सत्र के मुख्य अतिथि मशहूर निर्देशक एवं लेखक राहुल रवैल तथा मुख्य वक्ता इंदिरा गांधी मुक्त विवि दिल्ली के प्रो. नरेन्द्र मिश्र होंगे। इस अवसर पर संगीतकार दिलीप सेन, हिंदी एवं तमिल फिल्मों के निर्देशक आदित्य ओम, ओएसडी बंगाल सरकार एवं निर्देशक तथा लेखक मृत्युंजय कुमार सिंह, प्रसिद्ध पटकथा लेखक सत्य व्यास, आरआईएफएफ के निर्देशक सोमेन्द्र हर्ष, फिल्म निर्देशक एवं अभिनेता कुणाल मेहता (अंगूठो फिल्म), निर्माता निर्देशक गीतकार कपिल पालीवाल, संगीतकार जिगर नागदा, चिन्मय भट्ट तथा फिल्म समीक्षक तेजस पूनिया टीवी सीरियल तथा वेबसीरिज पर अपने विचार व्यक्त करेंगे। साथ ही क्षेत्रीय सिनेमा, विज्ञापन, शॉर्ट मूवीज के साथ पटकथा लेखन, गीत-संगीत, निर्देशन, छायांकन, रिकॉर्डिंग, मार्केटिंग आदि पर भी विभन्न सत्रों में विस्तृत चर्चा होगी।

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