श्रीकृष्ण सर्वव्यापी है, आप में भी है और मुझ में भी : नीतू परिहार
उदयपुर। मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय उदयपुर के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी कृष्ण साहित्य विविध संदर्भ का समापन छन्दमयी रहा। बप्पा रावल सभागार में मंच पर उपस्थित हर वक्ता ने अपने उद्बोधन का आगाज और समापन श्रीकृष्ण के भजनों, संस्कृत के श्लोकों और छंदों के साथ किया। समापन पर संगोष्ठी संयोजिका डॉ. नीतू परिहार ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि श्रीकृष्ण के बिना इस जगत में कुछ भी नहीं है। कृष्ण कहां नहीं है। कृष्ण आप में है, मुझ में है, कृष्ण जगत के हर जीव में है। दो दिन की इस हरि चर्चा में जो अनुभवों, विभिन्न शोधों और ज्ञान का जो आदान-प्रदान हुआ है वह अद्भुत और अतुलनीय है। उन्होंने संगोष्ठी की सफलता सभी को देते हुए कहा कि द्वापर युग से लेकर कलयुग तक आज भी कृष्ण को जानने और जीने की इच्छा हर एक में है। संगोष्ठी में आए शोधार्थी इस बात का प्रमाण है कि श्रीकृष्ण को जाने बिना जीवन का कोई भी संकल्प और ज्ञान अधूरा है।
मुख्य अतिथि पूर्व कुलपति सुविवि बी. एल. चौधरी ने अपने उद्बोधन की शुरुआत रामचरितमानस के दोहे से करते हुए बताया कि ईश्वर अपने स्वयं के ह्रदय में ही मौजूद है लेकिन उन्हें प्राप्त करने की भावना होनी चाहिए। भक्ति का मार्ग जो भी चुने वह हमें तब तक प्राप्त नहीं होगा जब तक हम उसकी गहराई में नहीं जाएंगे। कृष्ण को जानने के लिए हमें कृष्णमयी होना होगा।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विवि, नई दिल्ली के हिंदी विभाग के आचार्य प्रो. नरेंद्र मिश्र ने कहा कि भारत के हर कोने में श्रीकृष्ण साहित्य लिखा गया है। हर भाषा में लिखा गया है और सभी में एक दूसरे का समन्वय है। हम श्रीकृष्ण को किसी भी संदर्भ में देखें हमें कृष्ण ही प्राप्त होंगे। श्रीकृष्ण की व्यापकता को कोई नहीं जान सकता। कृष्ण कहीं जगन्नाथ है तो कहीं व्यंकटेश तो कहीं गोपाल, कहीं वि_लनाथ तो कहीं श्रीनाथ के रूप में विराजे हैं। कृष्ण ने कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। दुनिया को प्रेम का पाठ पढ़ाया तो सुदामा से मित्रता निभा कर दुनिया को मित्रता की महत्ता भी बताई।
सुविवि के हिंदी विभाग की सह आचार्य डॉ. नीता त्रिवेदी ने दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा कि दो दिनों में ही पूरा सभागार कृष्णमयी बन गया। उन्होंने दो दिवसीय संगोष्ठी में सभी अतिथियों का आभार ज्ञापित करते हुए संगोष्ठी के सफलतम आयोजन की शुभकामनाएं दी।
अधिष्ठाता स्नातकोत्तर सुविवि डॉ. नीरज शर्मा ने अपने उद्बोधन की शुरुआत संकीर्तन से करते हुए सभी से इस भजन ‘श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा’ का गान करवा संगोष्ठी में श्रीकृष्ण भक्ति रस घोल दिया। उन्होंने कहा कि प्रभु न वैकुंठ में, न मंदिर में और ना ही योगियों में विराजते हैं, भगवान वही रहते हैं जहां भक्त रहते हैं। श्रीकृष्ण को जानना समझना हमारे संस्कार अधिकार और हमारी अभिव्यंजना पर निर्भर करता है। श्रीकृष्ण लीला और उनके भावों को हम अपने संस्कारों अधिकारों से ही समझ सकते हैं। इन्हें समझने के लिए हमें गहराई तक जाना होगा। श्रीकृष्ण द्वापर में थे लेकिन कलयुग में आज भी हमारे ह्रदय में और हमारे आसपास ही मौजूद है।
संगोष्ठी संयोजक एवं विभागाध्यक्ष डॉ. नीतू परिहार ने बताया कि समापन सत्र से पूर्व द्वितीय विचार सत्र ‘कृष्ण भक्ति साहित्य का व्यापक परिदृश्य’ में प्रो. प्रदीप त्रिखा, अध्यक्ष, मानविकी संकाय, सुविवि, प्रो. महिपालसिंह राठौड़, हिंदी विभागाध्यक्ष, जयनारायण व्यास विविद्यालय, जोधपुर, डॉ. जितेंद्रसिंह, सहआचार्य, हिंदी विभाग, राजस्थान विविद्यालय, जयपुर एवं डॉ. चंद्रशेखर शर्मा, सहआचार्य, राजकीय मीरां कन्या महाविद्यालय, उदयपुर) ने अपना वक्तव्य रखा।
डॉ. नीतू परिहार ने बताया कि डॉ. चंद्रशेखर शर्मा ने अपने वक्तव्य में मनुष्य की चेतना को कृष्ण और प्रेम को राधा बताते हुए राजस्थान के विभिन्न कृष्ण मंदिरों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से अवगत करवाया। डॉ. जितेंद्र सिंह ने कृष्ण साहित्य में भ्रमरगीत परंपरा से अवगत करवाया। सिंह ने भ्रमरगीत के पदों से सदन को भाव बिभोर किया। प्रो. महिपाल सिंह राठौड़ ने ग्रामीण परिवेश के अनपढ़ लोगों के लोकगीतों में कृष्ण के स्वरूप को सदन के सम्मुख रखा। प्रो. प्रदीप त्रिखा ने नर से नारायण होने की प्रक्रिया या मार्ग को जानने में कृष्ण साहित्य की भूमिका से अवगत करवाते हुए मीरां के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डाला।
डॉ. नीतू परिहार ने बताया कि इसके पश्चात द्वितीय तकनीकी सत्र ‘आधुनिक साहित्य में कृष्ण’ आयोजित हुआ। अध्यक्षता प्रो. संजीव दुबे, गुजरात केंद्रीय विवि गांधीनगर ने की। डॉ. मंजू त्रिपाठी, सहआचार्य, राजकीय मीरां कन्या महाविद्यालय ने मध्यकाल में प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण के प्रेम रूप का वर्णन किया। राजकीय मीरां कन्या महाविद्यालय की व्याख्याता डॉ. कहानी भानावत ने ‘राम रसिया’ भजन के माध्यम से बताया कि राम और कृष्ण एक ही हैं। उनमें कोई भेद नहीं किया जा सकता। ‘हरे राम, हरे कृष्ण हरे हरे’ भजन भी यही दर्शाता है। डॉ. प्रेमशंकर ने ‘कृष्ण काव्य में लीला वर्णन’ पर रीतिकालीन कवि भोलानाथ के ग्रंथ ‘लीला प्रकाश’ का उदाहरण देते हुए कृष्ण लीला के शास्त्रीय विवेचन को प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि कवि भोलानाथ ने तीन प्रकार की लीलाओं का वर्णन किया हैं- पूर्ण लीला, सम लीला और लघु लीला।
प्रो. संजीवकुमार दुबे ने अध्यक्षीय उद्बोधन की शुरुआत भारतेंदु की पंक्ति ‘जहां देखो वहां मौजूद कृष्ण मेरा प्यारा है…’ से की। उन्होंने बताया कि सभी भाषाओं का साहित्य कृष्ण साहित्य का ऋणी है, क्योंकि इस साहित्य ने राम और कृष्ण जैसे दो मजबूत नायक अन्य साहित्यों को दिए हैं। उन्होंने बताया कि हिन्दी साहित्य में कृष्ण को अपने समय की परिस्थितियों और युगबोध के अनुरूप विविध रूपों में प्रस्तुत किया है। जहां भक्तिकाल में कृष्ण बालरूप में नजर आते हैं, वहीं रीतिकाल के कवियों ने उन्हें युवा रूप में दिखाया और आधुनिक काल में जब देश राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा था तो वहां कृष्ण को नीतिविसारक और कूटनीतिज्ञ रूप में दिखाया।