अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य अपने समय (1911-1990) के युगदृष्टा मनीषी थे। उन्होंने अपना जीवन समाज उत्थान के लिए लगाया। सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित करते उन्होंने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करते आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके।
उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था। वे 4 वेद, 108 उपनिषद, 6 दर्शन, 20 स्मृतियां और 18 पुराणों के भाष्यकार थे।
पं. श्रीराम शर्मा का जन्म आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में हुआ। जमींदार घराने के उनके पिता पं. रूपकिशोर शर्मा राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान तथा भगवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था।
साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही था। वे अपने सहपाठियों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। किशोरावस्था में ही उन्होंने समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ आरंभ कर दीं।
हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बनें। राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे। नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही बुनताघर स्थापित कर युवकों को उन्होंने हाथ से कपड़ा बुनने, स्वावलंबी जीवन जीने की प्रेरणा दी।
महामना मदनमोहन मालवीय से उन्होंने काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा ली। अपने घर में नियमित उपासना करते पंद्रह वर्ष की आयु में, वसन्त पंचमी 1926 में गुरूगादी का गुरूत्तर दायित्व मिला।
उन्होंने युग निर्माण के मिशन को गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाया। वे कहते थे कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुटते जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह करते आत्मानुशासित सार्मथ्य विकसित करने पर ही परमार्थ प्रयोजनों की सामर्थ्य प्राप्त हो सकती है।
108 उपनिषद विश्वार्पित
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