अंदर का तूफान जीवन के लिए हानिकारक

भगवान प्रसाद गौड़
21वीं सदी में मानव ने तकनीक, विज्ञान और भौतिक सुख-सुविधाओं में अद्भुत प्रगति कर ली है, लेकिन इसी दौड़ में सबसे बड़ा संकट मनुष्य के मन की शांति और संतुलन पर आ गया है। दुनिया का हर वर्ग—बच्चे, युवा और बुजुर्ग—मानसिक तनाव, अवसाद और चिंता से जूझ रहा है। विश्व मानसिक स्वास्थ्य संघठन के अनुसार हर चौथा व्यक्ति किसी न किसी मानसिक विकार का शिकार है। मनुष्य का असली स्वरूप उसके मन में बसता है, विचारों से ही उसके कर्म और व्यवहार आकार लेते हैं। जब विचार दूषित हो जाते हैं तो इंसान बुरा करने से नहीं हिचकता। यही कारण है कि हर रोज समाज में दिल दहला देने वाली घटनाएँ बढ़ रही हैं—कभी एक बच्चा क्रूरता का शिकार होता है, कभी कोई छात्र अवसाद में आत्महत्या कर लेता है, तो कभी रिश्तों की मर्यादा तार-तार हो जाती है।


मानसिक संकट का असर केवल आम जीवन पर ही नहीं बल्कि पेशेवर और सार्वजनिक जीवन पर भी दिखाई देने लगा है। हाल के वर्षों में कई बड़ी कंपनियों के उच्च पदस्थ अधिकारी मानसिक दबाव के कारण नौकरी छोड़ चुके हैं। कई राजनेता और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति भी तनाव और अवसाद की वजह से अचानक इस्तीफ़ा देने को मजबूर हुए हैं। यह इस बात का संकेत है कि मानसिक स्वास्थ्य केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय चिंता का विषय भी है।
इस संकट की जड़ आधुनिक जीवनशैली, निरंतर प्रतिस्पर्धा, बिना मेहनत आगे बढ़ने की लालसा, सस्ती लोकप्रियता की दौड़ और दिखावे की प्रवृत्ति है। सोशल मीडिया ने जीवन को आभासी मंच बना दिया है, जहाँ लोग खुश दिखते तो हैं, पर भीतर टूटे से हैं। शिक्षा प्रणाली भी केवल डिग्रियों और अंकों तक सीमित हो गई है, जहाँ मानसिक संतुलन और भावनात्मक मजबूती का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। कार्यस्थल पर लक्ष्य और टारगेट के दबाव में इंसान मशीन बनता जा रहा है।
समाधान के लिए केवल विचार नहीं बल्कि ठोस योजना जरूरी है। शिक्षा में बदलाव लाकर पाठ्यक्रम में जीवन-कौशल और मानसिक स्वास्थ्य को शामिल करना होगा। कार्यस्थलों पर योग, ध्यान, परामर्श और टीम-बिल्डिंग कार्यक्रम—चलाए जाने चाहिए। परिवारों में पारस्परिक संवाद और अपनायत की वापसी भी जरूरी है। ताकि हर सदस्य अपनी बात कह सके और उन्हें सुना जा सके। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को सकारात्मक विचारों का प्रसार करना चाहिए। माना कि हम डिजिटल युग में जी रहे है लेकिन स्क्रीन टाइम पर नियंत्रण रखना भी मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। मन की शुचिता ही सर्वोपरि है। यदि मन दूषित हो जाए तो विज्ञान और प्रगति भी विनाशकारी हो जाती है। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस हमें यह याद दिलाता है कि स्वस्थ मन ही स्वस्थ समाज और राष्ट्र की नींव है। इसलिए समय की मांग है कि परिवार, संस्था और राष्ट्र नीति में मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जाए। अन्यथा एक ऐसा दौर आएगा जब भौतिक प्रगति के बावजूद मनुष्य भीतर से पूरी तरह खोखला हो जाएगा।

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